हमारे घराने का इतिहास

मैं (ज़ाकिर अली) आपके सामने अपने घराने का इतिहास शब्द व शब्द पेश कर रहा हूँ, जो की मेरे वालिद मरहूम जनाब अयूब खान उर्फ़ बब्बन दीवाना जी ने लिखा है |

पेशावर से एक मुसलमान गायक का खानदान हिन्दुस्तान आया और रियासत ग्वालियर में बस गया वो खानदान खां साहेब मोहाज़ खां अफ़गानी का था। मोहाज़ खां के खानदान में एक फनकार जनाब मुनीर खां हुए। उस वक्त रियासत ग्वालियर के राजा श्रीमान् महाराज मान तन्वार सिंह थे। मीर मुनीर खां मौसिकी के बहुत मशहूर और माहिर फनकार थे। वह अपने दौर में काफी मशहूर थे, राजा मान तन्वार सिंह ने इस फन को काफी सीखा और काफी माहिर समझे जाते थे उनके सामने गायक गाते हुए शर्माते थे। धु्रपद शैली की इजाद राजा मान तन्वार सिंह ने किया है जो आज तक कायम है। एक मर्तबा राजा मान तन्वार सिंह ने मीर मुनीर खां की परीक्षा ली और गाने की किस्मों में तरह तरह की फर्माइश की लेकिन मुनीर खां राजा की फर्माइशों को काफी खूबियों के साथ सुनाते हुए चले गये और इन्तेहान में पूरे उतरे तो राजा मान तन्वार सिंह ने कहा कि बेशक मेरे दरबार में मुनीर खां जैसा फनकार ऐसा है जिसकी कोठी में सब कुछ मौजूद है हमने आज से मुनीर खां को मीर का खेताब अता किया और मीर मुनीर खां के घराने को कोठीवान घराना कायम किया। अब आज से मोहास़ खां और मीर मुनीर खां का घराना कोठीवान घराना कहलाया जायेगा और मोहास़ खां बानी भी कहलायी जायेगी और मुनीर खां के जद्दे अमजद थे।

राजा मान तन्वार सिंह के इन्तेकाल के बाद मीर मुनीर खां ग्वालियर से लखनऊ चले गये थे वहां कुछ दिनो कयाम करने के बाद अवध में जिला रायबरेली के कस्बा जायस में सुकूनत इख्तियार कर ली और जायस के करीब एक छोटी सी रियासत अमेठी में मुलाज़िम हो गये।

मुगलों के दौर से पहले का वाक्या है। जब मुगलों का दौर शुरू हुआ तो शहंशाहे अक्बर के दरबार में इस फन ने बड़ा उरूज पाया, अकबर के दरबार में 500 फनकार मुलाजिम थे, उनके उस वक्त के फनकार मोहाज़ खां व मीर मुनीर खां के खानदान के मियां मदार खां कलावन्द भी शामिल थे, जोकि मीर मुनीर खान के वंशज थे I यानी मिया मदार खान कलावंत मोहाज़ खान और मीर मुनीर खान के घराने यानी हमारे ख़ानदान से ताअल्लुक़ रखते थे I

उनमें चार घराने बादशाह ने दोबारा कायम किये और उनकी बानियां भी कायम की। चार फनकारों के नाम में चार खानदान अलग अलग कायम किये गये, वह चार बानिया यह है-

1- खन्डारी बानी।

2- मोहाज़ खां मदार खां कोठीवान घराना  बानी।

3- मियां तानसेन घराना बानी।

4- डागर घराना बानी।

यह चारों घराने मुसलमानों के थे और है मिया तानसेन की शादी डागर घराने की हुई, मिया तानसेन के बड़े साहब जादे मिया बिलास खां की शादी मोहास खां के खानदान में मियां मदार खां इसको कलावन्द के घराने मे हुई, लिहाजा इन तीनो घरानों में रिश्तों की वजह से शिनाख्त करना मुश्किल हो गया कि कौन किस घराने का व्यक्ति है।

लिहाजा मोहास खां और मदार खां के घराने में मदार खां की कई नस्लों के बाद मियां अजीमुद्दीन खां उर्फ इमाम बक्श पैदा हुए I अजीमुद्दीन खां उर्फ इमाम बक्श के यहां दो फनकार मियां कमरूद्दीन खां उर्फ चांद खा और मिया शमशुद्दीन खां उर्फ बरखुरदार खां पैदा हुए यह दोनो फनकार अपने ज़माने में फने मौसिकी के बहुत मशहूर कलाकार हुए वह दौर जनाब वाजिद अली शाह का था, यह दोनो फनकार नवाब वाजिद अली खां के दरबार में मुलाजिम थे वहां से नवाब खां के खास वज़ीर राजा हनुमन्त सिंह जो रियासत कालाकाकर जिला प्रतापगढ़ के हुक्मरा थे अपने यहां ले आये I मिया कमरूद्दीन खां उर्फ चांद खा और मिया शमशुददीन उर्फ बरखूदार खां के काला काकर आने का एक तारीखी वाक्या है।

नवाब वाजिद अली शाह अक्सर राजा हनुमन्त सिंह से कहा करते थे कि हनुमन्त सिंह हमसे सारे दरबारी कुछ न कुछ मांगते है लेकिन आप कुछ नही मांगते तो राजा हनुमन्त सिंह यह कह दिया करते थे कि आलीजा का दिया हुआ सब कुछ तो है मेरे पास फिर भी किसी चीज़़ की ज़रूरत महसूस करूंगा तो जरूर मांग लूंगा, एक मरतबा मियां कमरूद्दीन खां उर्फ चांद खा मिया शमशुद्दीन खां उर्फ बरखूदार खां ने नवाब साहब के दरबार में ऐसे गाना गाया कि दरबारियों के आंखो से रूमाल लग गये और नवाब साहब ने अपने कपड़े चाक कर लिये। पूरे दरबार में एक अजीब कैफतारी हो गया था। और गाना खत्म हुआ तो राजा हनुमन्त सिंह ने खड़े होकर अर्ज किया कि राजा आज एक चीज मांगूगा अगर अता किया जाये तो मांगू, नवाब साहब ने यह सुनकर बेहद खुश हुए और मांगा मेरी जान और मेरी रियासज के अलावा जो मांगोगे मैं जरूर दूंगा। मांगो क्या मांगते हो। राजा साहब ने कहा मुझे और कुछ नही चाहिए बस यह गायक की जोड़ी मुझे दे दीजिए। मैं जब इनका गाना सुनूंगा तो मुझे और मेरे मन को शान्ती मिलेगी। नवाब साहब ने कहा कि हनुमन्त सिंह तुम्हें ऐसी चीज़ मांगी जिससे मेरा दरबार सूना हो गया। खैर मैंने इन दोनो फनकारों को तुम्हें दिया। ले जाओ मगर यह मेरे पास वापस लौटकर ना आये। अगर यह लौट कर आये तो मुझे आपसे जबरदस्त शिकायत होगी।

नवाब साहब ने इन दोनो भाईयों को इनाम व एकराम देकर कहा जाइये चांद खां साहब आज से आप लोग मेरे सबसे चहीते वज़ीर के गायक हो गये। राजा हनुमन्त सिंह इन दोनो भाईयों को काला काकर ले आये और दोनो को एक एक गांव मनीपुर और मनीहारी लिखकर दे दिया व पांच – पांच सौ रूपये और 100 बीघा ज़मीन और रहने के लिए एक आलीशान हवेली अता कर ली, यह दोनो भाई जिन्दगी भर कालाकाकर में आराम की जिन्दगी गुज़ारने लगे।

चांद खां के तीन लड़के थे I

बड़े लड़के मियां महताब खां, उनके छोटे लड़के मिया बदरुद्दीन खां और सबसे छोटे लड़के मिया महबूब खां थे I

लिहाजा मियां चांद खां के सबसे छोटे साहब ज़ादे मियां महबूब खां के चार बेटो में से मेरा नम्बर तीसरा था।

बड़े भाई हबीब खां, दूसरे भाई मुजीब खां उर्फ लड्डन खां, तीसरा मैं था मेरा नाम मोहम्मद अय्यूब खां उर्फ बब्बन खां है और चौथा नम्बर मेरे छोटे भाई मोहम्मद याकूब खां उर्फ छम्मन खां था I

बड़े बाप मियां महताब खां साहब के एक ही लड़के बड़े यूसुफ खां जो अपने ज़माने में मौसिकी के बहुत बड़े माहिर और बेजोड़गायक थे।

मेरे खालाज़ात भाई मियां अब्दुल रशीद खां थे। अब्दुल रशीद खां फने मौसिकी के इन्तेहाई ऊँचे कलाकार थे। मेरे तायाज़ात भाई बड़े यूसुफ खां के शागिर्द थे। अब्दुल रशीद खां बड़े भाई के शागिर्द हुए इसलिए वह भी चांद खां के खानदान में गिने जाते है।

चूंकि अब्दुल रशीद खां के वालिद जो मेरे सगे खालू थे उनका नाम भी यूसुफ खां था। इसलिए खानदान में दो यूसुफ खां होने की वजह से छोटे बड़े यूसुफ खां के नाम से मशहूर हुए।

छोटे यूसुफ खां जो मेरे खालू थे जो फने कव्वाली के माहिर थे I

मेरे बड़े भाई हबीब खां व मुजीब खां उर्फ लड्डन खां भी अपने वख्त के मशहूर कलाकार थे।

चांद खां के घराने में कोई ना कोई फनकार होता ही आ रहा है।

मिया बरखूदार खां के चार लड़के थे I

मियां वज़ीर खा, मिया प्यारे खां, मिया शहाब खां, और मिया शेताब खां उर्फ शद्दन खां थे I

छोटे दादा जनाब बरखूदार खां साहब के लड़को में सिर्फ एक ही गायक मियां वज़ीर खां साहब थे, वह शुरू से बाहर रहे और खानदान वालों से बहुत कम मिलते जुलते थे I

काला काकर के राजा हनुमन्त सिंह और मियां चांद खां के देहान्त के बाद यह खानदान काला काकर से मानिकपुर चला आया और यही रहने लगा।

अब हम लोग चारो भाई तकसीम हो गये, मेरे दो बड़े भाई मानिकपुर के मकान व जायदाद के मालिक बना दिये गये और हम दोनो छोटे भाईयों को सलोन जिला रायबरेली में एक जायदाद दे दी गयी। लिहाजा हम लोग मानिकपुर से हट कर सलोन, जिला-रायबरेली में आकर बस गये I

वालिद साहब की जिन्दगी में बंटवारा हो गया था।

दोनो गांव जो मेरे दादा को हनुमन्त सिंह ने दिये थे वह दादा ने यह कहकर राजा को वापस कर दिया कि इस गांव के सारे किसान मुझे आकर परेशान करते है जिससे मेरी इबादत में और मेरे रियाज में खलल पड़ता है इसलिए आप यह दोनो गांव वापस ले लीजिए, हम लोगों को जेब खर्च मिल रहा है मेरे लिए वही काफी है। तो राजा ने दोनो भाईयों को बजाए 500-500 रूपये से एक 1000-1000 रूपये महीना फिक्स कर दिया जो उनको उनके जिन्दा रहने तक मिलता रहा। गांव दादा ने खुद वापस कर दिये, 100 बीघा जमीन किसानों में मुफ्त बांट दी। बाद में राजा के और दादा साहब के इन्तेकाल के बाद हम लोग सब मानिकपुर और सलोन में बंट गये। काला काकर की हवेली भी छोड़ दी I

1947 के बाद मैं अजमेर शरीफ राजस्थान चला आया था और यहां अपनी सुकूनत अख्तियार कर ली और बाल बच्चों के साथ ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के आस्ताने में जिन्दगी गुज़ार रहा था।

और इसी शास्त्री संगीत व लाइट संगीत के ज़रिये हिन्दुस्तान के कोने-कोने में और बाहर मुल्को में जा-जाकर अपने फ़न का मुज़ाहिरा करने का मौका पाता रहा। मुझे आवाम ने भी और मौजूदा हुकूमत ने भी खूब नवाजा। मैं अपने हुकूमते और भारत के आवाम का बेहद शुक्रगुजार हूं।

फुनूने लतीफा फुनूने लतीफा में 3 फ़न हज़ारों सालों से आज तक जारी है और हमेशा हर ज़माने में यह तीनो फ़न जारी रहेंगे और आगे बढ़ते जायेंगे और पूरी दुनिया को अपनी खूबियों से अपनी तरफ आकृषित करते रहेंगे। फुनूने लतीफा के तीन किस्म है-

  1. मौसिकी (संगीत)

 2- मुसव्वरी (स्कैच व पेंटिंग)

 3- शायरी

लेकिन मैं आपसे फ़ने मुसव्वरी और फ़ने शायरी पर कोई बहस नही करूंगा सिर्फ फ़ने मौसिकी पर गुफ्तगू करूंगा। क्योंकि मेरी जिन्दगी पूरी इसी फ़न के साथ जुड़ी रही या यह समझ लीजिए यह फ़न मुझे विरासत में मिला था मेरे बुजुर्गवार मेरे किब्ला वालिद साहब मरहूम मियां महबूब खां से यह फन मैं सिर्फ 10 साल तक सीख पाया। जो कि मुझे बहुत कम वख्त में मिला। वालिद साहब ने मेरी तालीम की शुरूवात की जिसकी बुनियाब बहुत मुस्तहकम थी और आसान थी इसी वजह से यह फ़न मेरी समझ में बहुत जल्द आ गया और कुछ खुदा की तरफ से इनायत की नज़र थी। इसलिए इस फ़न में मैंने बहुत जल्द तरक्की कर ली, चूंकि मैं खुद भी बड़ी लगन व दिल चस्पी से सीख रहा था और खूब रियाज़ कर रहा था। मेरे वालिद ने इतना कुछ बता दिया कि फिर मुझे दूसरे उस्ताद की ज़रूरत ही नही रही I हालांकि मैंने दूसरे फनकारों से सीखने की ख्वाहिश और कोशिश भी की मगर किसी एक फ़नकार में सिखाने का वह अन्दाज न मिल सका जो मेरे वालिद साहब से मिला। मैं उनसे जितना कुछ यह फन सीख पाया उसी को अपनी जिन्दगी का मकसद बनाया और इसी फ़न को ज़रियाये माश बनाकर पूरे भारत की सैर की और फ़न हासिल करने की कोशिश भी जारी रही। चूंकि यह फ़न एक अथा समन्दर के माहिन्द है इसकी तह तक पहुंच पाना मुश्किल ही नही नामुमकिन है। हालांकि मैं अपने जिन्दगी के 60 साल पूरी करने के बाद जब खुद पर नज़र डालता हूं तो सिफर नज़र आता हूं। लेकिन मैंने ज़्यादा से ज़्यादा यह फ़न हासिल करने की पूरी कोशिश की।

शुक्रिया

अयूब खान उर्फ़ बब्बन दीवाना (ज़ाकिर अली के मरहूम वालिदे मोहतरम)

अल्लाह हाफ़िज़

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